अभी कुछ दिन पहले ही मुझे मेरी रचना के लिए लेखकिये वक्तव्य लिखने को कहा गया ....पहले तो समझ नहीं की क्या लिखूं ..फिर जब कलम कागज़ पर चली तो तो जैसे आंसुओ की स्याही से जानें क्या क्या लिखती चली गयी लिखना मेरे लिए आसान कभी नहीं रहा ...खुद को मैने उमर भर जंजीरों मैं जकड़ा हुआ ही पाया ...भावनाओं को शब्दों मैं ढालनें के लिए मैं हमेशा ही अतिरिक्क्त सावधान रही ..ऐसा कभी भी नहीं हुआ की जो मन मैं आया लिख दिया ....
सुबह का सूरज पिछले दिनों की उदासी से भरा ही रहा है हमेशा ...एक अजीब सी लडाई रही है मन की और मेरे बीच ...जहां जहां मन विद्रोह करना चाहता वहां वहां मैं उसे बांध देती ...और फिर हम दिन भर झूझते रहते इसी खींच तान मैं अक्सर मन ही जीत जाता और मैं रो कर खुद को हल्का कर लेती यह आंसूं मन से हारने के नहीं होते यह तो मन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सूचक थे ,,